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November 05, 2025

कम उम्र में बढ़ता मर्ज

उनतीस साल के रोहन मेहता ने कभी सोचा तक नहीं था कि इतनी कम उम्र में उन्हें स्लिप डिस्क जैसी दिक्कत होगी, जो आम तौर पर उम्रदराज लोगों को होती है. दिल्ली के उभरते डीजे रोहन ने लगातार रहने वाले कमर दर्द को बस खराब पोश्चर या बैठने के ढंग को समझकर नजरअंदाज कर दिया था. लेकिन जब एमआरआइ हुई, तो पता चला कि उन्हें स्लिप डिस्क है. इसी वजह से कई हफ्तों से उनकी रातों की नींद हराम हो रखी थी और इतना दर्द था कि झुककर जूते के फीते बांधना भी मुश्किल हो गया था. डॉक्टरों ने बताया कि स्लिप डिस्क तब होती है जब रीढ़ की हड्डियों के बीच का नरम हिस्सा उभर आता है या फट जाता है, जिससे पास की नसों पर दबाव पड़ता है. लेकिन रोहन के लिए सबसे डराने वाला यह एहसास था कि उनकी रीढ़ की हड्डी उम्र से पहले ही बूढ़ी हो रही है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि रोहन की परेशानी किसी एक शख्स की नहीं, बल्कि एक बड़ी ट्रेंड की झलक है. अब कमर और गर्दन का लगातार दर्द युवाओं में तेजी से बढ़ रहा है, और भारत भी उन देशों में शामिल हो रहा है जहां कमर दर्द के सबसे ज्यादा मामले हैं. घंटों कंप्यूटर पर झुककर काम करना, बैठे-बैठे दिन गुजारना और खराब वर्क सेटअप इस दिक्कत को और बढ़ा रहे हैं. सिएटल के इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स ऐंड इवैल्यूएशन की 2023 की ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज रिपोर्ट के मुताबिक, लोअर बैक पेन या कमर दर्द दुनिया भर में जल्दी मौत और सेहत बिगड़ने के आला 10 वजहों में एक है. इसी रिपोर्ट के 2021 वाले वर्जन में बताया गया था कि दुनिया भर में होने वाली रीढ़ की हड्डी की चोटों में 15 फीसद मामले भारत के हैं, जो चीन के बाद दूसरा सबसे ज्यादा आंकड़ा है. हाल ही में, 2025 में रिसर्चगेट में छपी एक स्टडी का अनुमान है कि भारत में करीब 15 लाख लोग रीढ़ की चोट की तकलीफ को लिए जी रहे हैं.

प्रधान संपाद की कलम से

कमर दर्द को पहले अधेड़ उम्र के लोगों की दिक्कत माना जाता था. अब ऐसा नहीं है. यह आज के भारत में धीरे-धीरे फैलती ऐसी परेशानी बन गई है जो हर साल और जवान होती जा रही है. अब बीस-तीस साल के लोग भी स्पाइन क्लिनिक पहुंच रहे हैं, उन बीमारियों के साथ जो पहले सिर्फ बुजुर्गोंर् में दिखती थीं. आंकड़े चौंकाने वाले हैं. दुनिया भर में कमर के रोगों के कुल मरीजों में करीब 15 फीसद भारत में हैं, करीब 15 लाख केस और चीन के बाद सबसे ज्यादा. लेकिन सबसे चिंता की बात यह है कि दर्द की उम्र नीचे खिसक रही है. भारत के 18 राज्यों में हुए एक अध्ययन में 2020 से 2023 के बीच बैक पेन के मामलों में तेज बढ़ोतरी दिखी, जिसमें 18-38 साल के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित थे. 2024 के एक विश्लेषण में और डराने वाला आंकड़ा आया: 10 साल से ऊपर की उम्र के भारतीयों में लोअर बैक पेन अब विकलांगता की सबसे बड़ी वजह बन चुका है. और यह 25-49 साल की उम्र में सबसे ज्यादा दिखता है, जो जिंदगी के सबसे कामकाजी साल माने जाते हैं. अच्छी बात यह है कि अब इलाज बदल रहा है. मेडिकल इनोवेशन से स्पाइन केयर में क्रांति आ रही है: मिनिमली इनवेसिव सर्जरी, रोबोटिक्स और रीजेनरेटिव थेरेपी जैसी नई तकनीकें उम्मीद जगा रही हैं. खतरे की वजह समझना मुश्किल नहीं. हम धीरेधीरे एक सुस्त, बैठे रहने वाली प्रजाति बन रहे हैं. वजहें साफ हैं: डेस्क जॉब, घंटों स्क्रीन के सामने रहना और खराब पोश्चर की आदत. लेकिन असली गुनहगार है हमारे हाथ का मोबाइल. आंखों के नीचे पकड़े हुए फोन को देखने के लिए सिर हमेशा 30 से 45 डिग्री झुका रहता है. इससे सिर का वजन गर्दन पर चार गुना बढ़ जाता है, करीब 6 किलो से 25 किलो तक. यह दबाव नीचे तक असर डालता है. शरीर का स्वाभाविक हिलना-डुलना कम होने से मांसपेशियां और पूरी रीढ़ का स्ट्रक्चर कमजोर पड़ता है. नतीजा यह कि कमर शरीर से पहले बूढ़ी हो रही है. 2023 की ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज रिपोर्ट के मुताबिक, लोअर बैक पेन अब दुनिया भर में समय से पहले मौत और खराब सेहत की टॉप 10 वजहों में शामिल है. मेडिकल आंकड़े साफ बताते हैं कि यह अब एक देशव्यापी संकट बन चुका है. सबूत हर जगह दिख रहा है. 2024 के एक अध्ययन के मुताबिक, कामकाजी उम्र के 76 फीसद भारतीय किसी न किसी वर्क-रिलेटेड मस्क्युलोस्केलेटल डिसऑर्डर से जूझ रहे हैं, जिनमें से 60 फीसद को लोअर बैक पेन है. सबसे ज्यादा असर उन पर है जो दिनभर स्क्रीन से चिपके रहते हैं. 2024 में कंप्यूटर इंजीनियरिंग छात्रों पर हुए एक अध्ययन में करीब 60 फीसद में टेक-नेक सिंड्रोम पाया गया. 2025 के एक और अध्ययन के मुताबिक, 22 से 40 साल के आधे कॉर्पोरेट कर्मचारी गर्दन दर्द की शिकायत कर रहे हैं. 2023 के एक सर्वे में पाया गया कि 35 साल से कम उम्र के 53.4 फीसद टेक वर्कर्स में मस्क्युलोस्केलेटल डिसऑर्डर हैं. हैरानी की बात है कि अब स्कूल के बच्चे भी इससे अछूते नहीं. 2024 में कक्षा 8 से 12 तक के छात्रों पर हुए सर्वे में 61 फीसद ने बताया कि ई-लर्िंनग डिवाइस इस्तेमाल करने से उनकी गर्दन में दर्द रहता है. इसके ऊपर भारी स्कूल बैग की पुरानी समस्या भी जुड़ गई है. तस्वीर और डरावनी हो जाती है जब इसमें आज की जीवनशैली की बाकी चीजें भी जोड़ दें. घंटों स्क्रीन के सामने बैठे रहना शरीर को एक ही पोजीशन में जकड़ देता है. खराब डाइट एक और मुसीबत है. विटामिन डी और मैग्नीशियम की कमी से शरीर में कैल्शियम ठीक से नहीं जमता, जिससे हड्डियां कमजोर और रीढ़ की हड्डियां मुलायम हो जाती हैं. जंक फूड और एक्सरसाइज की कमी मिलकर मोटापा बढ़ाते हैं, जिससे डिस्क और जोड़ों पर ज्यादा भार पड़ता है, मांसपेशियां कमजोर होती हैं और सूजन बढ़ती है. तनाव इस समस्या को और बढ़ा देता है. लगातार टेंशन में रहने से मांसपेशियां हमेशा सख्त रहती हैं, जिससे पोश्चर बिगड़ता है और शरीर में बनने वाला कॉर्टिसोल हॉर्मोन हड्डियों की मजबूती घटा देता है. यानी दर्द भरी कमर के लिए यह परफेक्ट कॉम्बिनेशन है. कहानी पूरी तरह निराशाजनक नहीं है. जो दर्द कभी उम्रभर की सजा माना जाता था, आज ज्यादातर मामलों में कंट्रोल किया जा सकता है. दिल्ली के 29 साल के डीजे रोहन मेहता की मिसाल लें. वे नई पीढ़ी के उन लोगों में हैं जिन्हें घंटों झुके रहकर काम करने की वजह से स्लिप डिस्क की दिक्कत हो गई. लेकिन रोहन के पास वे इलाज थे जो उनके माता-पिता की पीढ़ी के पास नहीं थे. बेड रेस्ट या भारी-भरकम बेल्ट पहनने की जगह सर्जनों ने उनके स्पाइन तक पहुंचने के लिए कीहोल साइज चीरे लगाए, नैनो-साइज टूल्स, न्यूरो-नेविगेशन सिस्टम और सीटी-एमआरआइ से जुड़ी कैमरा टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया. कुछ हफ्तों की रिहैब के बाद रोहन फिर अपने टर्नटेबल पर लौट आए. इन मिनिमली इनवेसिव बोन ग्राफ्ट टेक्नीक से आगे है रोबोटिक सर्जरी, जहां ऑगमेंटेड रियलिटी रियल-टाइम एक्स-रे वाइजर की तरह काम करती है. अब नए तरह के कस्टम-फिटेड इम्प्लांट्स भी आ गए हैं, जैसे 3डी प्रिंटेड टाइटेनियम केज और स्पेसर. इससे भी आगे की दिशा है स्टेम सेल और प्लेटलेट-रिच प्लाज्मा (पीआरपी) इंजेक्शन जैसी रीजेनरेटिव थेरैपी. डॉक्टर फिलहाल इन पर सावधानी बरतने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन ये सर्जरी से बचने वालों के लिए एक नई उम्मीद की खिड़की खोलती हैं. भारत को अब सही डायग्नोसिस और समझ के साथ योग और आयुर्वेद की रिस्टोरेटिव पावर को और बेहतर बनाना होगा. इस हफ्ते की कवर स्टोरी में सीनियर एडिटर सोनाली आचार्जी आपको दिखाएंगी कि भारत में रीढ़ की बीमारी कितनी बड़ी समस्या बन चुकी है और इलाज की नई सीमाएं क्या हैं. लेकिन सबसे अच्छा इलाज वही है जो हमेशा रहा है: बचाव. एर्गोनॉमिक कुर्सियां, ऑर्थोफ्रेंड्ली गद्दे और तकिए मदद करते हैं, लेकिन सबसे जरूरी चीज है जागरूकता: घरों में, स्कूलों में और दफ्तरों में. असली कुंजी है मूवमेंट. उठिए, स्ट्रेच कीजिए, चलिए, झुकिए, दौड़िए. कोशिश कीजिए कि आपकी लाइफस्टाइल में चलना-फिरना शामिल रहे. अपनी कमर को टूटने मत दीजिए, हौसले को पस्त नहीं होने दीजिए.

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