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June 25, 2025

प्लास्टिक के भंवर में जिंदगी

हरियाणा-दिल्ली सीमा पर टिकरी कलां में 250 एकड़ में फैले प्लास्टिक बाजार की धूलधक्कड़ भरी आड़ी-तिरछी गलियां. हर तरफ प्लास्टिक के टुकड़ों से भरे सफेद पीपी रफिया थैलों के ऊंचे-ऊंचे ढेर. यहां प्लास्टिक को करीब 100 विभिन्न किस्मों में अलग किया जाता है और ध्यान रखा जाता है कि हर बोरी में सिर्फ एक ही किस्म हो क्योंकि प्लास्टिक की अलग-अलग किस्मों को एक साथ गलाया नहीं जा सकता. पीवीसी और प्लास्टिक अपशिष्ट विक्रेता संघ के कार्यालय सचिव विजय शर्मा बताते हैं, देश के तकरीबन हर जिले से प्लास्टिक कचरा यहां आता है. शर्मा के मुताबिक, रोजाना 30-50 ट्रक आते हैं, जिनमें से हरेक में तकरीबन 10-15 टन माल होता है. दूसरे कारोबारियों का अनुमान है कि यह आंकड़ा करीब 200-250 ट्रक का है. कहने का मतलब यह कि टिकरी कलां की चौहद्दी में विशाल असंगठित बाजार मौजूद है, जो संगठित बाजार से काफी बड़ा है.यहीं सारी कहानी छुपी हुई है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से जुटाए 23 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के आंकड़ों के 2022 में किए गए विश्लेषण के आधार पर सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) का निष्कर्ष था कि देश में कुल प्लास्टिक कचरे का सिर्फ 12 फीसद ही रिसाइकल होता है, करीब 20 फीसद जला दिया जाता है, जबकि 70 फीसद के आसपास का कोई हिसाब नहीं. यह कूड़े के पहाड़ों या लैंडफिल में जा पहुंचता है या फिर सड़कों के किनारे फेंक दिया जाता है. सो, आश्चर्य नहीं कि सितंबर 2024 में विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक बनकर उभरा. यह निष्कर्ष 2020 में दुनिया भर की 50,702 नगरपालिकाओं के आंकड़ों के आधार पर निकाला गया. भारत में हर साल 93 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जो दुनिया में सालाना 5.21 करोड़ टन प्लास्टिक उत्सर्जन का 20 फीसद है. इसका अर्थ समझें: यह वातावरण में फैला वह कचरा है, जिसका निबटान या प्रबंधन नहीं किया जा सका है. भारत में अनुमानित 58 लाख टन प्लास्टिक खुले में जला दिया जाता है, जिससे जहरीली गैस निकलती है. करीब 35 लाख टन लैंडफिल या कूड़े के ढेर में डाल दिया जाता है, जो कालांतर में समुद्र में पहुंचता है. इसमें प्लास्टिक कचरे की वह अपार मात्रा शामिल नहीं जिसे बटोरा और इधर-उधर फेंक दिया जाता है जहां यह सड़ता-गलता है और जमीन में विषैले तत्व छोड़ता है. यह तो भारत में पैदा होने वाले कुल 2.78 करोड़ टन प्लास्टिक कचरे का एक-तिहाई हिस्सा ही है, जो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2020 में 35 लाख टन के आंकड़े से बहुत ज्यादा है (देखें, कचरे का ढेर). इसकी वजह, बकौल अध्ययन, सरकारी आंकड़ों में ग्रामीण इलाकों, खुले में जलाए या असंगठित क्षेत्र में रिसाइकल किए गए प्लास्टिक कचरे शामिल नहीं हैं. इस अध्ययन के लेखकों ने इंडिया टुडे को एक ई-मेल में बताया कि भारत में कुल 2.78 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है जो सीपीसीबी के 2020 के लिए लगाए गए अनुमान 35 लाख टन से कहीं, कहीं ज्यादा है (देखें: कचरे का ढेर). अध्ययन के मुताबिक, भारत के सरकारी

बिल्डर-बैंक मिलकर निगल गए घर

चालीस वर्षीय कारोबारी सुमित गुप्ता ने 2015 में गुड़गांव के नजदीक सोहना में सुपरटेक के प्रोजेक्ट हिलटाउन में 1,200 वर्ग फुट का फ्लैट 66 लाख रुपए में लोन पर खरीदा. इंडियाबुल्स हाउसिंग ने बिल्डर को पूरी रकम का भुगतान कर दिया. फ्लैट 2018 में मिलना था, फ्लैट तो नहीं मिला पर इंडियाबुल्स ने 60,000 रु. की ईएमआइ जरूर शुरू कर दी. सुमित ने सबवेंशन स्कीम में फ्लैट खरीदा था. उन्हें 16 प्रतिशत की दर से ब्याज देना पड़ रहा है. वे 60,000 रु. ईएमआइ और 25,000 रु. घर का किराया दे रहे हैं. सुमित बताते हैं कि 2015 से 2018 तक बिल्डर ने ईएमआइ भरी. 2019 में बैंक ने ईएमआइ शुरू करने के साथ पोस्ट डेटेड चेक से भी 3 लाख रुपए निकाल लिए. बिल्डर ने 2018 के बाद एक ईंट नहीं लगाई, उनके फ्लैट वाले टावर में 19 मंजिल का सिर्फ ढांचा खड़ा है. प्रोजेक्ट के चार टावरों का तो निर्माण तक शुरू नहीं हुआ है. सुपरटेक के पीड़ित सौ से ज्यादा खरीदार उनके साथ 3 मई को नई दिल्ली के कनाट प्लेस में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंचे पर पुलिस ने उन्हें उठाकर बस में ठूंसा और थोड़ी देर बाद छोड़ दिया. यह अकेले किसी एक बिल्डर प्रोजेक्ट के खरीदारों का दर्द नहीं है. सैकड़ों खरीदार बैंकों और बिल्डरों के गिरोह के खिलाफ न्याय मांगने सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. हजारों खरीदार ऐसे भी हैजो कोर्ट तो नहीं गए लेकिन घर मिलने का इंतजार वे भी कर रहे हैं. यह सारा खेल बिल्डरों और बैंकों की मिलीभगत से चली सबवेंशन स्कीम के नाम पर हुआ. 2013 से 2015 के बीच बिल्डरों ने सबवेंशन स्कीम के तहत नो ईएमआइ टिल पजेशन यानी मकान का कब्जा मिलने तक होम लोन पर कोई किस्त नहीं देनी है या तीन साल तक होम लोन की किस्त नहीं जैसे लोकलुभावन स्लोगन देकर खरीदारों को आकर्षित किया. बैंक को लोन देना था और बिल्डर को मकान बेचना था. तीसरा पक्ष था खरीदार. तीनों के बीच त्रिपक्षीय लोन एग्रीमेंट हुआ. मकान का कब्जा मिलने तक लोन पर आए ब्याज की किस्त बिल्डर को भरनी थी. देखते-देखते 2018 आ गया लेकिन बिल्डर ने घर तो बनाया नहीं, ऊपर से किस्तें भी भरना छोड़ दिया और डिफॉल्टर होते रहे. नतीजा: किस्त का बोझ बैंकों ने खरीदारों पर डालना शुरू किया. किस्त न मिलने पर बैंकों ने खरीदारों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी. घबराए खरीदार हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दौड़े. अकेले सुपरटेक के 800 खरीदार सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. कोर्ट ने केस में सीबीआइ से आगे के रोडमैप पर एक रिपोर्ट भी मांगी. इस केस में 1,200 से ज्यादा खरीदारों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में 170 से ज्यादा याचिकाएं दायर की गईं. इसमें वैधानिक और सरकारी संस्थाओं के जिम्मेदारी निभाने में साजिशन विफल रहने, बैंकों और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों (एचएफसी) की ओर से खरीदारों को दांव पर लगाकर नियमों की अवहेलना करते हुए बिल्डरों/डेवलपरों को फायदा पहुंचाने का मुद्दा उठाया गया. सुप्रीम कोर्ट का आदेश अभी 29 अप्रैल को आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि छह शहरों में सुपरटेक के 21 प्रोजेक्ट हैं. इस डेवलपर ने 19 विभिन्न बैंकों/हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों (एचएफसी) के साथ त्रिपक्षीय करार किया. इसके ज्यादातर प्रोजेक्ट को आठ कंपनियों— इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस, पंजाब नेशनल बैंक हाउसिंग फाइनेंस, आइसीआइसीआइ बैंक, इंडिया इन्फोलाइन हाउसिंग फाइनेंस, एलऐंडटी हाउसिंग फाइनेंस, आदित्य बिरला हाउसिंग फाइनेंस, दीवान हाउसिंग फाइनेंस और एचडीएफसी हाउसिंग फाइनेंस ने फाइनेंस किया. बाकी 11 बैंकों/एचएफसी ने दूसरे प्रोजेक्ट्स को फाइनेंस किया. इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) के डायरेक्टर रह चुके राजीव जैन इस केस में सुप्रीम कोर्ट के न्याय मित्र हैं.

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