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December 10, 2025

खौफनाक जातीय दरार

मोदीजी, मैं अपने घर वापस जाना चाहती हूं. यह आवाज उस भीड़ के शोर को चीरती हुई निकली जो 13 सितंबर को चुड़ाचांदपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखने जुटी थी. मई 2023 में मणिपुर में हुई जातीय हिंसा के 28 महीने बाद प्रधानमंत्री यहां आए थे. हिंसा में 258 लोग मारे गए, 62,000 बेघर हुए और 4,786 घर जला दिए गए. यह पुकार दो स्कूली बच्चों की मां और कांगपोकपी के लोइबोल खुन्नौ गांव की कुकी महिला, 40 साल की होइतमनेइंग हाउकिप की थी, जो चुड़ाचांदपुर के संगाई राहत कैंप के बाहर खड़ी थीं. लेकिन प्रधानमंत्री से यही सवाल 48 वर्षीय आर.के. बिलासना का भी था, जो मोरेह बॉर्डर टाउन के एक मैतेई हैं और इंफाल के थोंजू केंद्र राहत कैंप में जिंदगी जैसे-तैसे काट रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी का यह चिरप्रती क्षित दौरा मुश्किल से आधे दिन चला और उसका अंत 8,500 करोड़ रुपए के विकास पैकेजों के ऐलान के साथ हुआ. सुलह या पुनर्वास पर एक भी शब्द नहीं कहा गया. कमेटी ऑन ट्राइबल यूनिटी (सीओटीयू) के प्रवक्ता एन.जी. लुन किपगेन ने कहा, हमें ऐलान नहीं, भरोसा चाहिए था. प्रधानमंत्री के जाने के बाद बिलासना का गुस्सा फूट पड़ा, अगर आपको सच में मणिपुर की परवाह है तो आकर देखें कि हम कैसे जी रहे हैं, प्रधानमंत्री. आपका चार घंटे का दौरा हमारे जले पर नमक छिड़कने जैसा था. अगर होइतमनेइंग और बिलासना को उम्मीद थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) संघ के प्रमुख मोहन भागवत 20 नवंबर को मणिपुर आकर उनके जख्मों पर मरहम लगाएंगे, तो उन्हें फिर निराशा ही मिली. भागवत का दौरा आधिकारिक तौर पर आरएसएस के सौ साल पूरे होने से जुड़ा था और उसका बहुत राजनैतिक महत्व था. लेकिन इसने उन करीब 58,000 बेघर लोगों की बेचैनी खास कम नहीं की, जो अब भी पूरे राज्य में फैले 351 राहत कैंपों में फंसे हुए हैं. मणिपुर में अब भी राष्ट्रपति शासन है और उसका भविष्य अनिश्चित है. शांति है, लेकिन वह सुरक्षा बलों के सहारे बनी हुई है. एक अदृश्य लकीर राज्य को दो हिस्सों में बांटती है—इंफाल घाटी अब मैतेई इलाका बन चुकी है और उसके चारों तरफ की पहाड़ियां कुकी-ज़ो समुदायों के कब्जे में हैं. दोनों के बीच बफर जोन है, जहां केंद्रीय बल तैनात हैं, और एक-दूसरे के इलाकों में पहुंचना लगभग नामुमकिन है. इसका मतलब है कि चुराचांदपुर में रहने वाले कुकी अब इंफाल एयरपोर्ट नहीं जा सकते, जबकि वह मुश्किल से 60 किमी दूर है. उन्हें कहीं भी उड़ान भरने के लिए टूटी-फूटी सड़कों पर 10 घंटे का सफर

फसल से सफल

हम भारतीय हमेशा से सुनते आए हैं कि खाने को दो जून की रोटी है तो सब कुछ है. नून रोटी खाएंगे, जिंदगी संगे बिताएंगे हमारे लिए एक गीत या प्रचलित नारा ही नहीं, जीवनयापन का एक तरीका रहा है, खासकर मिडिल और लोअर-मिडिल आय वर्ग के लिए. लेकिन बीते कुछ वर्षों में हमने पाया है कि महज पेट भरना ही काफी नहीं. कस्बाई और ग्रामीण इलाकों तक टाइप-2 डायबिटीज, दिल, जिगर और गुर्दे से जुड़ी बीमारियों, मोटापे और पीसीओडी की पहुंच ने हमें हमारी थाली की शक्ल बदलने पर मजबूर किया है. हाइ कैलोरी के बजाए एक संपूर्ण, पोषक डाइट अपनाने को प्रोत्साहित किया है. नतीजा: जो मौसमी फल दूर की कौड़ी लगते थे, आज घर के पास वाले मोड़ पर खड़े ठेले पर साल भर दिख रहे हैं. परवल, टिंडे, लौकी, करेले जैसी सब्जियां फिर से कूल हो रही हैं. मोटे अनाज, जिन्हें किसी मेहमान को परोसने में लोग शर्िंमदगी महसूस करते थे, आज मल्टीग्रेन आटे की थैलियों में पारंपरिक गेहूं की जगह कम कर रहे हैं. सुबह-शाम की चाय की प्याली में रिफाइंड शुगर की जगह ऑर्गेनिक गुड़ धीरे-धीरे घुल रहा है. लगातार अपनी सेहत के बारे में जागरूक होता युवा समझ रहा है कि उसके लिए प्रोटीन के आसान और किफायती स्रोत क्या हो सकते हैं. बदलती थाली के साथ कृषि का नक्शा बदलना लाजिमी है. किसान अब पारंपरिक फसलों को अलविदा कह रहे हैं. खासकर छोटी जोत वाले किसान इस बात को लेकर जागरूक हो रहे हैं कि कम जमीन में उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कैसे हो सकता है. फल और सब्जियों की बढ़ती खेती, नई और ऑर्गेनिक पद्धतियों से पैदावार का बढ़ना, उगाने के साथसाथ पैदावार की प्रोसेसिंग कर उसे सुरक्षित रखने पर जोर और एआइ का इस्तेमाल एक नई क्रांति की इबारत लिख रहे हैं. उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के किसान राजकुमार मौर्य को ही ले लीजिए. कम भूमि के चलते उन्होंने बांस से मचान बनाकर उस पर खेती शुरू की. कुंदरू, परवल से शुरुआत करते हुए उन्होंने लौकी और कुम्हड़े एक साथ लगाए. और नीचे की जमीन पर धनिया, मेथी, गोभी और सोया जैसी सब्जियां लगाईं. एक ही टुकड़े पर कई परतों में खेती करते हुए उन्होंने 2024 में 10 लाख रुपए की कमाई की. आज भारत का हॉर्टिकल्चर इकोसिस्टम किसानों और कृषि कारोबारियों की भागीदारी के साथ पांव पसार रहा है. कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के मुताबिक, भारत इस समय लगभग 32.05 करोड़ टन हॉर्टिकल्चर उत्पाद पैदा कर रहा है, जो अनाज की पैदावार से न सिर्फ ज्यादा है, बल्कि मुकाबले में बहुत कम भूमि पर है. अनाज 12.76 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में उगता है, वहीं बागवानी मात्र 2.57 करोड़ हेक्टेयर में किसानों को बेहतर पैदावार दे रही है. बागवानी फसलों की पैदावार भी अनाज की तुलना में कई गुना है: अनाज की औसत उपज 2.23 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि फल-सब्जियों की 12.49 टन प्रति हेक्टेयर. आज भारत आम, केला, अमरूद, पपीता, चीकू, अनार, नींबू और आंवला जैसे कई फलों की खेती में दुनिया में अग्रणी है और फलसब्जियां पैदा करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश बन चुका है. देश-दुनिया के किसानों के साथ बड़े स्तर पर काम करने वाली ऐग्रीटेक कंपनी मैप माइ क्रॉप के संस्थापक और सीईओ स्वप्निल जाधव बताते हैं, हॉर्टिकल्चर की ओर बढ़ते किसान तेजी से एफपीओ (फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन) में शामिल हो रहे हैं. फिलहाल 7,000 से ज्यादा एफपीओ ऐक्टिव हैं, जिनमें से कई हॉर्टिकल्चर पर फोकस करते हैं. जाधव के मुताबिक, एक दशक पीछे जाएं तो भारत के हॉर्टिकल्चर सेक्टर में काफी स्ट्रक्चरल दिक्कतें थीं. अच्छी क्वालिटी के इनपुट तक सीमित पहुंच, कमजोर एग्रोनॉमिक सपोर्ट और नाकाफी एक्सटेंशन सर्विसेज की वजह से पैदावार ग्लोबल मानकों से 20-30 फीसद कम थी. कटाई के बाद नुक्सान अक्सर 25-40 फीसद तक पहुंच जाता था क्योंकि कोल्ड चेन इन्फ्रास्ट्रक्चर पर्याप्त न था. क्वालिटी में उतार-चढ़ाव से प्रीमियम मार्केट में एंट्री रुक जाती थी. यह सेक्टर बिखरा हुआ भी था. मार्केट तक पहुंच में रुकावटें, एपीएमसी (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) की पाबंदियां, मुश्किल एक्सपोर्ट प्रोटोकॉल और किसानों में जागरूकता की कमी के चलते किसान ज्यादा मुनाफा नहीं उठा पा रहे थे. लेकिन पिछले एक दशक में तस्वीर पूरी तरह उलट गई है. खाद्य सुरक्षा मानकों और जीआइ टैगिंग के बेहतर कम्प्लायंस की वजह से प्रीमियम मार्केट तक ज्यादा पहुंच के साथ आज एक्सपोर्ट मजबूत हुआ है. 2016 में लॉन्च हुए ई-नैम (इलेक्ट्रॉनिक-नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट) से मिलने वाली सुविधाओं के तहत अब किसान देश और दुनिया के कृषि मार्केट से जुड़कर फसल से ज्यादा से ज्यादा दाम कमा सकते हैं. बेहतर कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं के चलते अब उन्हें पहले के मुकाबले कम नुक्सान झेलना पड़ता है. फतेहाबाद (हरियाणा) के आधुनिक किसान आनंदवीर गिलनखेड़ा ने किन्नू, अनार और अमरूद की बागवानी में ऐसी व्यवस्था बनाई है कि अगर किसी एक फल में किसी सीजन अपेक्षित पैदावार नहीं मिलती, तो भी आमदनी होती रहती है. वे बताते हैं, किन्नू के फल साल में एक बार आते हैं, जबकि अमरूद के तीन बार. किसी एक फल से कोई नुक्सान हो भी जाए तो अमरूद से भरपाई हो जाती है. केंद्र सरकार ने साल 2014-15 में मिशन फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर (एमआइडीएच) के जरिए इस दिशा में एक अहम कदम उठाया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते 10 साल में 15.66 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त जमीन फल और सब्जियों की खेती में जुड़ी है. 2019-20 में 12.10 मीट्रिक टन की पैदावार बढ़कर 12.56 मीट्रिक टन हुई है. इसमें एमआइडीएच के अंतर्गत किसानों को जागरूक करने, बीज को बेहतर करने और माइक्रो इरिगेशन जैसी तकनीकों को अपनाए जाने की अहम भूमिका रही है. इसकी जीती-जागती मिसाल राजस्थान की संतोष देवी खेदड़ हैं जिन्होंने राजस्थान के गर्म मौसम में पिछले नौ बरस से सेब की खेती कर सभी को हैरत में डाल दिया है. किसान आधुनिक टेक्नोलॉजी को हाथोहाथ ले रहे हैं. रोपाई से लेकर कटाई तक डेटा के आधार पर फैसले लेकर दूसरे किसानों के लिए मिसाल बन रहे हैं. किसान सैटेलाइट मॉनिटरिंग से रियल टाइम मिलने वाली फसल की सेहत की जानकारी, मौसम से जुड़ी जानकारी, डिजिटल क्रॉप मैपिंग, खेत के बीते वर्षों के इतिहास की समीक्षा कर कस्टमाइज्ड सलाह का इस्तेमाल करना सीख रहे हैं. आने वाले पन्नों में हिंदी पट्टी के हजारों किसानों में से कुछेक की चुनिंदा कहानियां हैं. कुछ अभावों में पले, तो कुछ मल्टीनेशनल कंपनियों की नौकरियां छोड़ गांव की जमीन पर लौटे. कुछ ने फूड प्रोसेसिंग प्लांट लगा सैकड़ों को रोजगार दिया तो अन्य ने हजारों किसानों को प्रशिक्षित किया. न सिर्फ खुद मुनाफा कमाकर अपने दिन बदले, बल्कि कृषि की तस्वीर बदलते हुए आम भारतीयों की थाली में रंग भर दिया.

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